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Showing posts from April, 2010

khuda-e- husn

ऐ खुदा-ए-हुस्न तेरा आना क़यामत था | गिरा कर बिजलियाँ सब पर तेरा जाना क़यामत था || कि जुड़वाँ शोले थे सुलगे शहर में आग फैली थी | कि दरिया सूख ही जाता कि ऐसी आग गहरी थी || ऐसी आग सुलगा कर यूँ शर्माना क़यामत था | और पल में चाँद से शोला बदल जाना क़यामत था || कि दिन में रात को लाती कमर तक तेरी जुल्फें थीं अँधेरी रात से काली नदी सी बहती जैसे थीं | कि ऐसी जुल्फें लहरा कर मचल आना क़यामत था | और जादू कर कोई काला भुला जाना क़यामत था || ऐ खुदा-ए- हुस्न ......

chaand

वो कहते हैं चले आओ महीनों बीत जाने हैं कि छत पर चाँद का आना कभी देखा नहीं हमने | कि परसों ईद आनी है नहीं आने पर किस मुँह से हम छत पर चाँद देखेंगे |